लोन की बकाया रकम की वसूली के लिए रिकवरी एजेंटों के इस्तेमाल पर रिजर्व बैंक के रोक लगा देने के बाद बैंकों ने नया रास्ता अख्तियार कर लिया है। बैंक अब लोन की रकम की वसूली के लिए ब्रिटिश शासन काल में 1881 में बने कानून का सहारा ले रहे हैं। इसके लिए बैंक उन ब्लैंक चेकों को हथियार बना रहे हैं, जिसे ग्राहक कर्ज लेने के दौरान बैंक को देता है।
डिफॉल्ट करने वाले ग्राहक से कर्ज की वसूली के लिए बैंक ब्लैंक चेक में कर्ज की पूरी बकाया राशि एक साथ भर देते है, जिससे वह चेक बाउंस हो जाता है। बैंकों की दलील है कि अगर आप किस्तों में कर्ज का भुगतान नहीं कर सकते तो एक साथ कर्ज का भुगतान कर दें। हालांकि, यह दलील पूरी तरह बेतुकी है। लेकिन बैंक ऐसा कर्ज की पूरी रकम एक साथ पाने की नियत से नहीं करते हैं। दरअसल, इसके पीछे बैंकों का मकसद यही होता है कि ग्राहक अदालत के पचड़े में पड़ने के बजाय मामले का निपटारा करने और कर्ज चुकाने को राजी हो जाए।
नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत चेक बाउंस होने पर दो साल की सजा या जुर्माने के तौर पर चेक में भरी राशि के दोगुनी रकम चुकाना पड़ती है। इसमें एक अहम बात यह भी है कि कोई ग्राहक चेक बाउंस होने पर तभी अपील कर सकता है जब वह पूरा कर्ज चुका दे। ऐसे में बैंकों को डिफॉल्ट रोकने के लिए चेक के रूप में बेहतर हथियार मिल गया है। बैंक ऑफ इंडिया से सहायता हासिल करने वाले अभय क्रेडिट काउंसलिंग सेंटर के वी एन कुलकर्णी का कहना है, 'अगर कर्ज लेने वाला व्यक्ति कर्ज की किस्त नहीं चुकाता है तो बैंक उसमें पूरी रकम भर ग्राहक के खिलाफ चेक बाउंस का मामला दर्ज करा देते हैं। ऐसे में डिफाल्ट करने वाले ग्राहकों के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।'
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